प्रभु के श्रृंगार
प्रभु के दर्शन करो तब एक एक शृंगार की झांकी सावधानी पूर्वक करनी।
प्रत्येक कोई भाव से बिराजते है। इस प्रकार शृंगार के दर्शन करने से उनमे रहे हुए भावो का दान प्रभु जीव को करते है।
इन शृंगार का नित्य स्मरण करने से जीव का लौकिक समाप्त हो जाता है।
शृंगार के स्मरण के अनेक विध भाव जागृत होते है।
श्री हरिरायजी शृंगार का अर्थ बताते है - 'शृंग' अर्थात गूढ़ भाव और 'र' अर्थात उसमे रहे हुए रस।
हृदय मे रहे हुए भगवद् रस ही शृंगार है।
शृंगार करने के बाद हाथ मे अत्तर ले कर समर्पण किया जाता है। अत्तर यानि जो अपने तथा प्रभु के बिच का अंतर दूर करता है। दोनो की एक ही गंध कर दे वही अत्तर । या उसे सुगंधि कही जाय । श्रीजी की और उनके सेवक की एक गंध कर दे । जब हम अत्तर समर्पण करे और वह प्रसादी सुगंध अपने भीतर जाये तब अपने भीतर रहे हुए दोष रुपी दुर्गंध दूर हो जाय ।
श्रृंगार धराकर वेणुजी धराते हैं । जिससे हमारे कर्ण में से कामनाओं का कोलाहल, घमंड की घोंघाट, अहम् की आवाज दूर हो, और प्रभु के वेणुनाद का श्रवण कर कर्ण पवित्र हो।
फिर दर्पण दिखाते हैं, यह स्वामिनीजी के हृदय का भाव है, जिससे हमारे हृदय की मलिनता दूर हो और हमारे हृदय में नित्य प्रभु बिराजें ।
जय श्री वल्लभ
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