top of page
Search

भक्तिमार्गीय एवं ज्ञानमार्गीय

Writer's picture: Reshma ChinaiReshma Chinai

सर्वात्मभाव दो प्रकार के हैं ,भक्तिमार्गीय एवं ज्ञानमार्गीय भक्तिमार्गीय सर्वात्मभाव विगाढभावरूप है, निरोध रूप है ।विरह की अत्यांतिक अवस्था में अतिविगाढभाव होने पर सर्वात्मभाव की स्फूर्ति होती है ।ये सर्वात्मभाव अलौकिक है ।ये सर्वात्मभाव पुरुषोत्तम प्राप्ति में खास हेतु भूत है ।इसफी सामान्य व्याख्या करें तो "भगवद्विषयक निरूपधिकस्नेह भक्ति विशेष"वह सर्वात्मभाव कहाजाता है

"सर्वस्मिन् आत्मभावः सर्वात्मभावः।" अथवा सर्वेषां इन्द्रियाणां आत्मनि भगवति मावः सर्वात्मभावः।"इस प्रकार दो व्याख्या है।जैसै आत्मा में शुद्ध स्नेह है वैसे भगवान में निरूपाथिक शुद्धभाव को आत्मभाव कहते हैं ।रतिर्देवादिविषयो भावः ।आत्मा में रति- प्रिती होना यही मुख्य कर्तव्य है

अंतःकरण का सर्व भाव प्रभुसंबंधी हो जाय तब भक्त और भगवान के बीचमे तिरोधान करने वाला पडदा तुरंत हट जाता है ।ये सर्वात्मभाव व्रजसुंदरीयों को हुवा है इसका वर्णन 10 स्कंध कीया है ।व्रजभक्तों को विरहदशा में अतिविगाढभाव होते सर्वत्र भगवत् स्फूर्ति हुई, यही तो सर्वात्मभाव है।


भक्तिमार्गिय सर्वात्मभाव का वर्णन अणुभाष्य में लिंगभूयस्त्वाधिकरण में किया है ।छांदोग्योपनिषद में(छा7-24-1)में सर्वात्मभाव के स्वरूप को बताते हुवे कहा है कि- विरह भाव में अति विगाढभाव होनेआपर सर्वत्र वही स्फुरित होते है।अर्थात भक्त में व्यभिचारी भाव रूप (संचारिभाव रूप) तदादेश और अहंकारादेश प्रकट होता है ।


तदादेश -"स एव अधस्ताद, स आत्मा एव पूरस्ताद ......."

"वही उपर है, वही नीचे है, वही आगे है- पीछे है और उत्तर में है, दक्षिण में है । यहां 'स' (वह)कहने से 'अहं (मैं) भाव मपने आप आ जाता है

इस प्रकार सफुरित होने के बाद कदाचित् खुद में ही भगवान होने की स्फुर्ति होती है ।इसे अहंकारादेश कहेते है ।


अहंकारादेश- "अहं एव अधस्ताद, अहं एव पूरस्ताद......"

"मैं ही उपर हुं,मैं ही नीचे हुं, मै ही आगे हुं,मैं ही उत्तर में हुं, मैं ही दक्षिण में हुं"

सर्वात्मभाव में आया हुवा व्यभिचारी भाव दूर हो के "आत्मादेश " होता है।इस आत्मादेश में सर्वत्र भगवत्फूर्ति होती है ।


आत्मादेश-"आत्मा एव अधस्ताद ,आत्मा एव पूरस्ताद ...."

आत्मा याने भगवान ।आत्मा ही उपर है, आत्मा ही नीचे है, आत्मा ही आगे है, पीछे है आत्मा ही उत्तर है, दक्षिण है ।ये सर्व आत्मा है- भगवान है ।ऐसी स्फूर्ति होती है ।

सर्वात्मभाव प्राप्त भक्त केवल भगवान को ही देखता है ।भगवान को ही जानता है । और आत्मरति, आत्मक्रीडा, आत्ममिथुन, आत्मानंद होता है ।येही मुख्य रति है ।और मुख्य आनंद है । इस भक्त को सर्वत्र भगवत्स्वरूप ही स्फुरित होता है ।ये मक्त भगवान के पुण्य दर्शन श्रवण विज्ञान से कुशल हुवा होता है । विरह में उसे अन्य का दर्शन होता नहीं है ।प्रपंच- जगत को भूल जाता है ।आत्मादेश से उसका अहं- मम सर्वथा विगलित हो जाता है।


इस विरही भक्त के प्राणादि सर्व तिरोधान हो जाये तो सर्व व्यर्थ हो जाय इसलिए भगवान ही इस भक्त के सर्वरूप हो जाते हैं ।भक्त को सबकुछ आत्मा से ही होता है ।भगवान ही उसके सर्वरूप हो जाते हैं ।इस आत्मा से प्राण, आत्मा से आशा, स्मर,आकाश,तेज, आप, अन्न, बल,विज्ञान, ध्यान, चित्त, संकल्प, वाणी, नाम, मंत्र, कर्म आत्मासेही सर्व ये भक्त को होता है ।इसे सर्वात्मभाव कहते हैं।

ये सर्वात्मभाव श़ृंगार रसरूप है ।ये शुद्ध पुष्टिमार्गीय भक्त को ही प्राप्त होता है ।प्रभु दान करें तो ही ये सर्वात्मभाव प्राप्त होता है


अणुभाष्य में (16 प्रदानवदित्यधिकरण)(3-3-43)कहा है

प्रदानवदेव तदुक्तम् सर्वात्मभाव का दान (प्रकृष्ट वरदान) प्रभु करें तो ही मिल सकता है ।जीवकृत साध्य नहीं है ।भगवदिच्छा से ही वरदान मिलता है।


शारांशमें


जब विरह दशा के तापक्लेश में ये भक्त प्रभु की स्वरूपप्राप्ति में जरा भी विलंब सहन नहीं कर सकता, अतिआर्ति होनेसे स्वरूप बिना उसे कुछ भी भान रहेता नहीं है, तब विरह के स्वभाव से ये भक्त तापक्लेश के प्रभाव से प्रभु के गुणगान करते है ।गुणगानादि साधन करके भी जीवबल से भी ये प्रभु नहीं मिल सकते है एसा जब उनको ज्ञान होता है तब उन में निःसाधनता का भाव आता है ।तब दीनता से प्रभु के शरण जाते हैं ।इस समय परमकृपालु भगवान सर्वात्मभाव का उत्तमोत्तम दान करते हैं ।

इस प्रकार के सर्वात्मभाव प्रदान का स्वरूप हमे गोपीगीत में दर्शन होता है ।


5 views0 comments

Comments


© 2020 by Pushti Saaj Shringar.

bottom of page