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व्रज - आश्विन शुक्ल पूर्णिमा

Writer's picture: Reshma ChinaiReshma Chinai

व्रज - आश्विन शुक्ल पूर्णिमा

Thursday, 17 October 2024


प्रीतम प्रीत ही तें पैये ।

यद्यपि रूप गुण शील सुघरता, इन बातन न रीजैयें ॥१॥

सतकुल जन्म करम शुभ लक्षण, वेद पुरान पढ़ैये ।

“गोविंदके प्रभु” बिना स्नेह सुवालों, रसना कहा जू नचैये ॥२॥


भावार्थ- विशुद्ध प्रेम ही अन्त:करण को पवित्र करता है. परम प्रीति ही भक्ति है. प्रभु प्रेम द्वारा ही वश में होते हैं.

रूप, गुण, शील, सुघड़ता इन सब से प्रभु प्रसन्न नहीं होते हैं. अच्छे कुल में जन्म होना, कर्म, शुभ लक्षण, वेद पुराणों का ज्ञान यह सब हो किन्तु प्रेम नहीं हो तो सब व्यर्थ है.


द्रश्य शरदोत्सव, कार्तिक स्नान आरंभ


विशेष – आज से कार्तिक स्नान आरंभ हो रहा है. यशोदाजी एवं गोपियों ने आज से व्रत आरंभ कर कार्तिक कृष्ण सप्तमी व अष्टमी को मानसी-गंगा में स्नान कर, श्री कृष्ण-बलराम को भी स्नान करा कर इंद्रपूजन की शुरुआत कार्तिक कृष्ण नवमी के दिन से की थी.


आज श्रीजी मंदिर के सभी मुख्य द्वारों की देहरी (देहलीज) को हल्दी से लीपी जाती हैं एवं आशापाल की सूत की डोरी की वंदनमाल बाँधी जाती हैं.


आज से प्रतिदिन भीतर की देहरी हल्दी से लीपी जाती है, अन्नकूट के कीर्तन गाये जाते हैं एवं श्रीमस्तक के श्रृंगार में विशेष श्रृंगार मोरपंख की चन्द्रिका एवं कतरा के धराये जाते हैं.


रासपंचाध्यायी के आधार पर श्रीजी को शरद पूर्णिमा रास महोत्सव के मुकुट के पांच अध्याय के वर्णित श्रृंगार धराये जाते हैं. इसी श्रृंखला में आज महारास की सेवा का पंचम एवं अंतिम अध्याय का मुकुट का श्रृंगार है जिसमें शरद का दूसरा वैसा ही श्रृंगार और शयन में चन्द्रावलीजी के भाव से ठाकुरजी को श्वेत उपरना धरावे का वर्णन है.


आज सभी साज, वस्त्र एवं श्रृंगार कल की भांति ही होते हैं. इसे परचारगी श्रृंगार कहते हैं.


सभी बड़े उत्सवों के एक दिन बाद परचारगी श्रृंगार होता है.

परचारगी श्रृंगार के श्रृंगारी श्रीजी के परचारक महाराज चिरंजीवी श्री विशालबावा होते हैं. यदि वो उपस्थित हों तो वही श्रृंगारी होते हैं.


दान और रास के भाव के मुकुट-काछनी के श्रृंगार में पीताम्बर (जिसे रास-पटका भी कहा जाता है) धराया जाता है जबकि गौ-चारण के भाव में गाती का पटका (जिसे उपरना भी कहा जाता है) धराया जाता है.


राजभोग दर्शन –


कीर्तन – (राग : सारंग)


हमारो देव गोवर्धन पर्वत गोधन जहाँ सुखारो l

मघवाको बलि भाग न दीजे सुनिये मतो हमारो ll 1 ll

बडरे बैठ बिचार मतो कर पर्वतको बलि दीजे l

नंदरायको कुंवर लाडिलो कान्ह कहे सोई कीजे ll 2 ll

पावक पवन चंद जल सूरज वर्तत आज्ञा लीने l

या ईश्वर को कियो होत है कहा इंद्र के दीने ll 3 ll

जाके आसपास सब व्रजकुल सुखी रहे पशुपारे l

जोरो शकट अछूते लेले भलो मतो को टारे ll 4 ll

माखन दूध दह्यो घृत घृतपक लेजु चले व्रजवासी l

अद्भुत रूप धरे बलि भुगतत पर्वत सदा निवासी ll 5 ll

मिट्यो भाग सुरपति जब जान्यो मेघ दीये मुकराई l

‘मेहा’ प्रभु गिरि कर धर राख्यो नंदसुवन सुखदाई ll 6 ll


साज - “द्वे द्वे गोपी बीच बीच माधौ” अर्थात दो गोपियों के बीच माधव श्री कृष्ण खड़े शरद-रास कर रहें हैं ऐसी महारासलीला के अद्भुत चित्रांकन से सुसज्जित पिछवाई आज श्रीजी में धरायी जाती है. गादी, तकिया और चरणचौकी पर सफेद लट्ठा की बिछावट की जाती है. आज सर्व साज शरद का ही आता है परन्तु दीवालगिरी, चंदरवा आदि बिछात नहीं होती है.


वस्त्र – श्रीजी को आज कल की ही भाँति सुनहरी और रुपहली ज़री का सूथन व काछनी तथा मेघश्याम रंग की दरियाई (रेशम) की रुपहली ज़री की तुईलैस की किनारी से सुसज्जित चोली धरायी जाती है. लाल रंग का रेशमी रास-पटका धराया जाता है. ठाड़े वस्त्र सफेद डोरिया के धराये जाते हैं.


श्रृंगार – प्रभु को आज कल जैसा ही भारी श्रृंगार धराया जाता है. हीरे की प्रधानता एवं मोती, माणक, पन्ना से युक्त जड़ाव सोने के सर्व आभरण धराये जाते हैं.

श्रीमस्तक पर हीरे का जड़ाव का मुकुट एवं बायीं ओर शीशफूल धराया जाता है. श्रीकर्ण में मयूराकृति कुंडल धराये जाते हैं. आज चोटीजी नहीं धराई जाती हैं. आज पीठिका के ऊपर हीरे का जड़ाव का चौखटा नहीं धराया जाता है.

कस्तूरी, कली आदि सभी माला धरायी जाती हैं.

हीरा का शरद उत्सव वाला कोस्तुभ धराया जाता हैं.

श्वेत पुष्पों की दो सुन्दर मालाजी धरायी जाती है.

श्रीहस्त में कमलछड़ी, हीरा के वेणुजी दो वेत्रजी धराये जाते हैं.पट श्वेत ज़री का व गोटी जड़ाऊ काम की आती है.


आरसी शृंगार में चार झाड़ की एवं राजभोग में शरद की डांडी की दिखाई जाती हैं.

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