श्रीहरिरायजी कृत ८४ वचनामृत - वैष्णवोना आचरण माटे
(१) भगवदीय वैष्णवोए हंमेशा मनमां प्रसन्न रहेवुं. अमंगळ उदासीन न रहेवुं.
(२) श्रीठाकोरजीना मंदिरमां नित्य नौतम उत्सव जाणवो.
(३) श्रीठाकोरजीनी सेवा कोइने भरोसे न मुकवी. आपणे माथे जे स्वरूप बिराजतुं होय तेनी सेवा आपणे ज करवी.
(४) कोइनो विरोध न करवो, सर्वेनी साथे मीठां वचन बोलवां.
(५) विषय अने तृष्णानो त्याग करवो.
(६) प्रभुनी सेवा भय अने स्नेह राखी करवी.
(७) आपणो देह अनित्य करी जाणवो.
(८) वैष्णवोना सत्संगमां रहेवुं.
(९) भगवद स्वरूप अने भगवदीय वैष्णवने एक समजवा.
(१०) आपणी बुध्धि स्थिर करी राखवी. बुध्धिने चलायमान न करवी.
(११) भगवद दर्शनमां आळस न करवुं.
(१२) भगवद दर्शनमां आळस करे तो आसुरी भाव उत्पन्न थाय.
(१३) प्रसाद थोडो लेवो.
(१४) निद्रा थोडी करवी.
(१५) भगवदीयनी पासे आपणे चालीने जवुं.
(१६) कोइना पर क्रोध नहीं करवो. क्रोध वडे हृदयमांथी भगवदावेश जतो रहे छे.
(१७) ज्यां स्वधर्म विरुध्ध चर्चा चालती होय त्यां मौन सेववुं.
(१८) अवैष्णवोनो संग न करवो.
(१९) सेवामां अवैष्णवने लाववा नही. ने भगवदीयनी सेवा करवी.
(२०) धैर्य धारण करवुं.
(२१) मन श्री ठाकोरजीना चरणाविंदमां राखी संसारनुं काम करतां रहेवुं.
(२२) भगवदीय साथे नौतम भाव राखी रहेवुं.
(२३) सेवामां बकवाद न करवो. (बिन जरूरी बोलवुं नही.)
(२४) प्रसन्नताथी सेवा करवी.
(२५) सेवा करी श्रीठाकोरजीनी पासे कांइपण वस्तु न मांगवी.
(२६) श्रीठाकोरजीनुं नाम लईने कांई पण वस्तु लावीए ते श्री ठाकोरजीने प्रथम धरीये. त्यार पछी पोते खानपान करवुं.
(२७) मनमां भगवदीय साथे दासभाव राखवो.
(२८) भगवदीयथी द्वेष न राखवो.
(२९) श्रीठाकोरजीना उत्सवनो लोप न करवो.
(३०) भगवदीयनुं स्मरण करीए.
(३१) मार्गनी रीति प्रमाणे सेवा करवी.
(३२) भगवदीयमां छलछिद्र न जोवां.
(३३) नवीन वस्तु-सामग्री श्रीठाकोरजीने अवश्य धरवी.
(३४) प्रिय वस्तु मळे तो हर्ष न करवो.
(३५) कांईपण नुकसानी थाय त्यारे दिलमां शोक करवो नहीं.
(३६) सुख दुःख सरखा करी मानवां.
(३७) भगवदवार्ता नित्य नियमथी करवी.
(३८) श्रीसर्वोत्तमजीनो पाठ नित्य नियमथी करीए ए ज पुष्टिमार्गीय वैष्णवोनी गायत्री छे.
(३९) यमुनाष्टक आदि ग्रंथोना पाठ नित्य नेमथी करवा.
(४०) जयंति व्रत अने एकादशी व्रत अवश्य करवा.
(४१) पाक-सामग्री पवित्रताथी करवी.
(४२) असमर्पित वस्तु कांईपण न लेवी.
(४३) मन उदार राखवुं.
(४४) सर्वेथी मित्रता करवी.
(४५) स्वधर्मार्थे तन मन अने धनथी मदद करवी.
(४६) अहंता-ममता छोडी देवी.
(४७) क्षमावंत थइने रहेवुं.
(४८) जे कांई प्राप्त थाय तेमां संतोष मानवो.
(४९) बहार भीतर शुध्धताथी रहेवुं.
(५०) आळस रहित रहेवुं.
(५१) कोईनो पक्षपात न करवो. (न्यायी थवुं.)
(५२) सर्व भोगादिकनो त्याग करवो.
(५३) मनमां कोई वातनी इच्छा न करवी.
(५४) सहजमां जे कांई प्राप्त थाय तेमां आपणुं कार्य करवुं.
(५५) कोई वस्तुमां आसक्त न थवुं.
(५६) शत्रुमित्र विषे समान बुध्धि राखवी.
(५७) असत्य बोलवुं नहीं.
(५८) कोईनुं अपमान न करवुं.
(५९) निंदा स्तुतिमां समान बुध्धि राखवी.
(६०) स्थिरता राखवी.
(६१) ईंद्रियोने विषे प्रीति न राखवी.
(६२) स्त्री-पुत्र-गृहना उपर प्रीति न करवी.
(६३) स्त्री पुत्रादिकनुं सुखदुःख आपणे विषे मानी लेवुं नहीं.
(६४) मनमां कोई वातनो गर्व करवो नहि.
(६५) कुटिलता रहित रहेवुं.
(६६) मिथ्या भाषण न करवुं.
(६७) सत्य बोलवुं.
(६८) शांत चित्त राखवुं.
(६९) प्राणीमात्र उपर दया राखवी.
(७०) एकाग्र चित्तथी सेवा करवी.
(७१) अंतःकरण कोमळ राखवुं.
(७२) निंदित कार्य कोई दिवस न करवुं.
(७३) क्षमावंत थइने रहेवुं.
(७४) महापुरुषोना चरित्र वांचवा.
(७५) पोताना मनमां अभिमान न करवुं.
(७६) कोईपण वचनथी बीजाना मनने दुःख थाय एवुं वचन बोलवुं नहीं.
(७७) सत्य होय अने सांभळनारने प्रिय लागे तेवुं वचन कहेवुं.
(७८) पुरुषोत्तम सहस्त्रनाम तथा श्रीवल्लभाचार्यजी कृत ग्रंथनो पाठ अवश्य करवो.
(७९) जे कांई करवुं तेनुं फल मनमां न ईच्छवुं.
(८०) श्रीठाकोरजी नी सेवा अने कीर्तनने परम फलरूप मानवा.
(८१) वैष्णवमंडळीमां नित्य नेमथी जवुं, कथा वार्ता निशंक थइने कहीए तथा सांभळीए.
(८२) अन्याश्रय कदी पण न करवो. अन्याश्रय बहु ज बाधक छे तेथी अन्याश्रयथी बीता रहेवुं.
(८३) श्रीठाकोरजीने शरणागत थई रहेवुं बीजा देवताथी कोईपण जातनुं फळ ईच्छवुं नहीं.
(८४) श्री आचार्य श्री महाप्रभुजी तथा श्रीगुसांईजी तथा तेमना वंशजोनी समान अन्य कोइने न जाणवा. ने एमना समान बीजाने जाणे तो असुरावेश थाय अने जीवनो उध्धार थाय नहीं एमां संदेह नथी.
उपर प्रमाणे श्री हरिरायजीना वचनामृतनुं अनुकरण करवाथी प्राणीमात्र भक्तिमान थई श्रीप्रभुचरणाविंदने पामे छे.
Comments