अब कैसें दूजे हाथ बिकाऊँ ।
मन मधुकर कीन्हौ वा दिन तैं चरन कमल निज ठाऊँ ॥
जो जानौं औरै कोउ करता, तऊ न मन पछताऊँ ।
जो जाकौ सोई सो जाने, नर अघ तारन नाउँ ॥
जो परतीति होइ या जग की, परमिति छुटत डराउँ ।
सूरदास प्रभु सिंधु सरन तजि, नदी सरन कित जाउँ ॥
सूरदासजी के शब्दों में श्रीराधा कह रही ह-(श्यामसुन्दर!) अब दूसरे के हाथ कैसे बिकूँ (दूसरे को स्वामी कैसे बनाऊँ)? उसी दिन से (जबसे आपके दर्शन हुए) मेरे मन रूपी भ्रमर ने आपके चरण कमल में अपना स्थान बना लिया है। यदि मैं यह समझूँ कि सृष्टि कर्ता कोई (आपके अतिरिक्त) और है, तो भी मन में (आपसे प्रेम करने का) पश्चात्ताप (मैं) नहीं करूँगी। जो जिसका (आश्रित) है, उसकी दशा तो वही (आश्रयदाता) जानता है; फिर आपका तो नाम ही मनुष्यों को पापों से मुक्त करने वाला है! यदि इस जगत् (जगत् के भोगों में सुख)- का विश्वास हो तो इसकी सीमा (सम्बन्धादि) छूटने का भय करूँ (किंतु जगत् के सुख का तो मुझे विश्वास ही नहीं) । स्वामी! (आपके समान) समुद्र की शरण छोड़कर अब नदी- (के समान अल्पशक्ति लोगों— ) की शरण क्यों जाऊँ।
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